अमित के कुण्डलिया - हमर भाखा
सुखदाई भाखा हमर, राखव एखर मान।
अपने बोली मा बसय, सिरतों हमर परान।।
सिरतों हमर परान, भले झन पतियावव।
बाढ़ै मया दुलार, अपन भाखा बतियावव।।
कहय अमित कविराज, भाख अब निज बगराई।
उलहोवय दिन रात, अपन भाखा सुखदाई।।
बड़ही बहुते जी बने, छत्तीसगढ़ी राज।
होही भाखा मा हमर, जब्भे जम्मों काज।।
जब्भे जम्मों काज, गोठ मा
होहय जब्बर।
रद्दा खुलही नेक, बढ़े के सुग्घर सब बर।।
पढ़व लिखव निज भाख, रहव झन, अँड़हा अँड़ही।
हमर राज हा पोठ, जबर के आगू बड़ही।।
महतारी भाखा अपन, होथे ब्रम्ह समान।
छोड़ बिदेशी मोह ला, करलव निज सम्मान।।
करलव निज सम्मान, मया के भरही झोली।
अंतस राखव बोध, अपन के बोलव बोली।।
गुनव अमित के गोठ, सबो के पटही तारी।
छोंड़ छाँड़ सब लाज, बोल भाखा महतारी।।
सृजन- कन्हैया साहू 'अमित'
शिक्षक- भाटापारा छत्तीसगढ़