कविताई काबर
कविता के किरगा भरे, कविवर तहूँ कहाय।
किचिर-पिचिर लिखना करे, कतका नाँव कमाय।।
रोज-रोज कविता अमित, लिखे कहाँ ले जाय।
छलकै हिरदै भावना, खुदे कलम लिखवाय।।
आज करेजा भाव ला, कोन इहाँ अपनाय।
देख समस्या पूर्ति बर, कविता लिखते जाय।।
दस कविता जौने पढ़य, तभे एक लिख पाय।
लिखथे रोजे दस बीस जे, वो कतका पढ़ पाय।।
कविता काबर तैं लिखस, का हे तोला भान।
काखर खातिर काय बर, कलम चलाये जान।।
कविता के मेला लगै, सबो माल बेंचाय।
भीतर अंतस भाव हे, वोहा सर-मर जाय।।
आज जमाना हैं उलट, कविवर उही कहाय।
उटपटांग लिखई करे, उही इनामी पाय।।
कविता लिखई नाँव मा, लूट मचे हे आज।
शिल्प व्याकरण के कमी, अमित उही कविराज।।
कविता के बेरा कहाँ, सकही कोन बताय।
अंतस उमड़ै भावना, रचना तभे रचाय।।
कमती कविता कीमती, लिखलव सोंच विचार।
लिख-लिख खरही गाँजना, होवय सब बेकार।।
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कन्हैया साहू 'अमित' ~ भाटापारा छत्तीसगढ़
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